उस परमपिता परमेश्वर की सर्वोत्तम कल्पना एवं चरित्र को मेरा कोटि कोटि प्रणाम| इस नाट्य रूपी मंच पे ये विविध रूप मे समर्पित शक्ति उस पवित्र जल की तरह हैं जो हमेशा पात्र का आकार ले लेती हैं, गाड़ी के उस मजबूत पहिए की तरह जिसके बिना गाड़ी की कल्पना भी नही की जा सकती| हाँ, मैं ऐसी ही तो हूँ, आज जब पीछे मूड. के देखती हूँ तो समझ नही आता मेने क्या खोया क्या पाया|
कल्पना की परी मैं, लगता हैं कल की ही तो बात है जब कुछ ग्राम की मुझे, सुकून भरी नजरों से निहारती, छलकती आखों से माँ मेरी ने आँचल मे दुबका लिया था| इठलाती , लडखडाती , खिलखिलाती मैं चलना सीखी, माँ की ऊँगली पकड़ के रिश्तो की परिभाषा समझी। पापा एवं दादा की आँखों का तारा, इतराती थी मैं जब वो बेटा कह मुझे बुलाते थें । पढने लिखने के ज़माने में दोस्तों की टोली बनाके खूब धमाल मचाती थी। बचपन वो प्यारा था जब मैं दादी की लोरी सुन मीठे स्वपन की दुनिया में खो जाती थी।
जब बडी हुई थोड़ी और युवा कहलायी बेटे से बेटी कहलाने के सही मायने मैं जान पायी, फिर भी कभी माँ पापा से पूछने का साहस न कर पायी। अब हर बात पे माँ डाटती थी और दादी टोकती थी, शरारत करने की तमन्ना लिए दबी आस में मैं सो जाती। बदल गया था लोगो का नजरिया, शायद स्वाभाविक था अपने ही शरीर में परिवर्तन मैं जो भांप रही थी। गुडिया अब प्यारी नही, प्यारी मुझको मेरी आज़ादी थी, बाहर उड़ने को मैं ललचाती थी। माँ अब खाना बनाना सिखाती थी, दादी अगले घर जाने की हिदायत देके समझाती थी। पापा कल भी बेटा बुलाते थे, आज भी वही बुलाते हैं यही सोच के मैं इतराती थी। 'बड़ी हो गयी हो', 'बड़ी हो गयी हो' पक गयी थी मैं यह सब सुनके तो अपनी उधेड़ बुन में फिर से रम जाती थी।
आकर्षण की दुनिया में अच्छा दिखने की लड़ाई थी, बाजू वाले रहीम के लिए अब मैं मुनिया नही एक खूबसूरत पहेली थी। अब माँ नजर रखती हैं मेरी हर एक हरकत पे की कही फिसल ना जाऊ, जहाँ पापा भी हैं कुछ बदल रहे। समाज एक विचित्र मायाजाल हैं जहाँ मैं फंस न जाउ बस यही सोच अब वो घबराते हैं, इसलिए शायद समय रहते उन्हें अपनी जिमेदारी निभाने की जल्दी थी। मैं समझ रही थी कि बहुत पीछे छोड़ आयी हूँ उस सुनहरे बचपन को, शायद अब एक नयी जिमेद्दारी से भी मेरी पहचान हो। उत्कंठित हो जाती थी और कुंदित भी जब भी कोई मुझे पराया धन कहके बुलाता था परन्तु नए रिश्तो के आगमन की सूचना में ही मन गुदगुदाता था।
कांप जाती थी मैं अनदेखे भविष्य को लेके जब वो मंदिर का पंडित पापा को आके एक नया रिश्ता बताता था। जांचा परखा एक युवक सबके मनभाया, शुभ मुहरत में पवित्र अग्नि को साक्षी मानके वो मेरा सात जन्मो का साथ, मेरा पति परमेश्वर कहलाया। अर्धांगिनी हूँ मैं उसकी, खयालो की पराकास्ठा में वो रोमांच भी कितना गजब निराला था, मन नए हिलोरे लेता था, अथाह प्यार के समुन्दर में गोते लगता था।
बाबुल के घर से विदाई लेके यादों को समेटे जब मैं इस नए किरदार को जीवंत करने चली तो किसी ने भाभी, किसी ने चाची, किसी ने मामी कहके कुछ नए रिश्तो से मेरा परिचय कराया। सास में दूसरी माँ खोजने व बहु से बेटी बनने की दुरी को पुरा करने को ही मैंने अपना अगला निश्चय बनाया। बदल गयी थी दुनिया मेरी, परीक्षा में अव्वल आने की उठ्कंता में रमती जा रही थी मैं अपने इस नए वातावरण में।
कभी संवादों की गर्मागर्मी से ओत प्रोत तो कभी तन्हाई के शीतलपन में नाप रही थी मैं अपनी यह नई धरोहर, तभी एक नन्ही परी और एक प्यारे से राजकुमार ने धीमे से आके मेरे आँचल को खुशियों से भर दिया। ख़ुशी से ओत प्रोत अपने संसार को मैंने इन दोनों में था अब समेट लिया। अपना बचपन मैंने इन दोनों के बड़े होने के साथ फिर से जीया, वो सुखा आँगन फिर से भरा। पोषण करना अब मेरी नई जिम्मेदारी थी, समझ पा रही थी मैं अब मेरी माँ की वो विडम्बना, भावविभोर भी व्याकुल भी था मन मेरा मेरी बिटिया की चंचलता से। सांख बचाना और सामंजस्य बिठाना अब मेरी नई परेशानी थी।
भरण पोषण के साथ अच्छी शिक्षा दीक्षा दिलाना भी मेरी अभिलाषा थी, सूरज की तरह चमके और पनाश की तरह खिले, फले फुले मेरे लाल दुलारे अब मेरी यही तमन्ना थी। छम-छम करता आखिर वो दिन भी आया जब नाजों से पली बिटिया को विदा करते मेरी आँख भर आयी, मैं सोची नाटक रूपी मंच पे मेरी लाडो की थी अब बारी आयी, वो जीवन की अब नयी पारी संभालेगी, बेटी से बहु बनके अब किसी ओर के घर का आँगन महकाएगी। समय के फेर के साथ अब एक नयी जिम्मेदारी ओर निभानी थी, अपने सुने हुए आँगन को फिर से महकाने लक्ष्मी जो लानी थी। 'सोभाग्यवती भव:' कहते हुए आँख मेरी भर आयी थी, बहु के रूप में दूसरी बेटी पाके मैं फूली नही समायी थी।
प्रोड़ावस्था में कैसे, कब और क्या क्या बदल रहा था, सर में बढती चांदनी की तरह याद्दास्त पे भी काफी जोर लग रहा था।
अपनी तुतलाती आवाज़ में पहली बार 'दादी' जब उसने बोला तो लगा आसमान के सारे तारे लाके इसके आने वाले भविष्य में सजा दू, गले का हार थी वो मेरे और आँखों का नूर, खुश रहे सदा बस ऊपर वाले से यही अरदास थी। विडियो गेम के ज़माने में गुडिया कहाँ उसे भायी थी पर लोरी सुनके मीठे सपनो में खो जाने को वो हमेशा लालायत थी। मेरी ही छवि है वो, यह सोच आज भी मैं मुस्कराती हूँ। उसके गुलाब की पंखुड़ी जैसे लाल अधरो की मुस्कान से रोशन है यह घर मेरा जो कल बड़ी होके किसी ओर के यहाँ करेगी सवेरा।
कैसी अभिलाषा, जिजीविषा में जीवन के 60 वर्ष यूँ बीत गये, मिट्टी जैसे सपने टुटके नए आकार भी अब ले चुके। सोच रही हूँ बेटी, बहु, माँ, सास, दादी क्या क्या ना कहके इन वर्षो में सबने है पुकारा पर अपने लिए मैंने कब समय निकाला। रौशनी था नाम मेरा, हर जगह सार्थक किया अपने नाम को करके रोशन हर जगियारा पर जीवन में रिश्तो के इस हेर फेर में, भावनाओं के चक्रव्यूह में बाजु वाली ने फिर भी आज Mrs शर्मा कहके ही पुकारा।
याद है मुझे शेक्श्पेयेअर कहे थे - 'नाम में क्या रखा है…?', हाँ सच ही तो हैं मेरी पहचान मेरे आचार विचार, व्यव्हार का ही तो प्रतिबिम्ब हैं, नदी की उस धारा की तरह ही तो थी मैं जो जिस दिशा राह मिली वहाँ की हो ली। ईश्वर की सर्वोतम रचना - नारी थी, नारी हूँ, नारी ही रहूंगी जब तक यह माटी से बना ढाँचा माटी में ना मिल जाए।
PS: Happy Women’s Day……Celebrate the Woman in you and with the Woman/Women around you!